Railway phrases dictation for Shorthand practice
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भारतीय रेलवे में सुधार को लेकर बिबेक देबरॉय कमिटी की सिफारिशों पर विवाद की गुंजाइश तो है, लेकिन इनमें से भविष्य के लिए कई रास्ते भी निकल सकते हैं। सच कहा जाए तो इसने रेलवे पर लीक से हटकर विचार करने पर जोर दिया है।
गौरतलब है कि भारतीय रेलवे के हालात बदलने और संसाधन जुटाने के उपाय सुझाने के लिए इस कमिटी का गठन पिछले साल सितंबर में किया गया था। कमिटी ने 5 साल का एक रोडमैप पेश किया है, जिसके आधार पर रेलवे में व्यापक बदलाव की बात कही गई है। इसमें रेलवे की आर्थिक गतिविधियों के संचालन के लिए नियामक प्राधिकरण बनाकर रेल बजट को खत्म करने की सिफारिश की गई है।
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रेलवे को मुख्य रूप से दो निकायों में बांटने का सुझाव दिया गया है। एक निकाय बुनियादी ढांचे की देखभाल के लिए होगा तो दूसरा संचालन संबंधी काम देखेगा। इसके अलावा ट्रेनों के संचालन को प्राइवेट हाथों में देने का प्रस्ताव रखा गया है और कहा गया है कि इसकी शुरुआत सवारी गाड़ियों से की जा सकती है।
साथ ही रेलवे के लिए स्वतंत्र और अर्ध-न्यायिक रेलवे नियामक प्राधिकारण बनाने की अनुशंसा भी की गई है। कमिटी ने कहा है कि सरकार रेलवे के सामाजिक दायित्व का सारा दबाव रेलवे पर सब्सिडी के रूप में डाल देती है जिससे कई तरह की समस्याएं पैदा होती हैं। कमिटी का बुनियादी सवाल है कि रेलवे एक आर्थिक सेवा है या सामाजिक सेवा करने वाली कोई संस्था? आखिर रेलवे को स्कूल, अस्पताल चलाने और सुरक्षा बल रखने की क्या जरूरत है? इसे एक आधुनिक परिवहन सेवा समझने और उसे उसी रूप में विकसित किए जाने की जरूरत है।
रिपोर्ट में रेलवे में निजी कंपनियों के निवेश को बढ़ावा देने की जरूरत बताई गई है और प्रतिस्पर्धा का माहौल सुनिश्चित करने के लिए भी कहा गया है। दरअसल कमिटी रेलवे को एक सरकारी विभाग से ज्यादा एक कंपनी के रूप में विकसित करने की पक्षधर है। मगर दिक्कत यह है कि हमारे देश में रेलवे सियासत का एक टूल बनी हुई है। गठबंधन राजनीति के दौर में सत्तारूढ़ दल हमेशा अपने गठजोड़ के सबसे बड़े सहयोगी दल को संतुष्ट करने के लिए उसे रेल मंत्री का पद देता आया है।
रेल बजट के जरिए सरकार अपने पक्ष में माहौल तैयार करने की कोशिश करती है। अपने वोटबैंक को एकजुट करती है। इसके लिए बिना किसी ठोस आधार के गाड़ियां चलाई जाती हैं। आज भी जिन सरकारी महकमों में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार है, उनमें रेलवे प्रमुख है। इसमें भर्तियों के घोटाले अक्सर सामने आते रहते हैं। यह लालफीताशाही की प्रतीक है। इसमें छोटे से छोटे फैसले लेने में वर्षों लग जाते हैं।
नतीजा यह है कि स्वतंत्रता के समय भारत का रेलवे नेटवर्क चीन से दोगुना था। पर आज चीन हमसे मीलों आगे नजर आ रहा है। कमिटी की राय स्पष्ट है कि रेलवे को अगर प्रफेशनल ढंग से नहीं चलाया गया तो कभी यह फायदे में नहीं आएगी और इसके आधुनिकीकरण का सपना भी कभी पूरा नहीं हो पाएगा।
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